सच्चाई की कहानी – सत्य बोलने का सम्मान हिंदी कहानी

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सच्चाई की कहानी- सच्चाई का सम्मान


मुअतिल एम.पी. बंशीधर गुप्त ने कहा-“लक्ष्मण सिंह! आज के जमाने में झुठ का सहारा लिए बिना किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। जो जितना चापलूस एवं दगाबाज होगा उतना ही वह सफल होगा। आदर्श बोर ईमान सिर्फ मुंह से कहने की बातें हैं। जीवन चलाने के लिए कदम-कदम पर रुपये-पैसों की जरूरत पड़ती रहती है। अतः अर्थार्जन के लिए समय-समय पर अन्याय का सहारा लिए बिना भी काम नहीं चल सकता। तुमको भी अधिक आदर्श एवं ईमानदारी की बातें छोड़ देनी चाहिए। अवसर पर न्यायान्याय को नहीं देखकर अपनी स्वार्थ-सिद्धि करने के लिए जागरूक रहना चाहिए।”

लक्ष्मणसिंह बोला- (जरा चौककर) “साहब ! आप ऐसे कैसे फरमा रहे हैं ? आप पर तो संरक्षण का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। रक्षक ही जब भक्षक बन जायेंगे, तब भला सुरक्षा करेगा ही कौन? आपको ऐसे घृणित विचार व्यक्त नहीं करने चाहिए। झुठ को चाहे जितना भी दबाकर रखा जाय, पर वह दव नहीं सकती। आखिर में दूध का दूध और पानी का पानी होकर ही रहता है। जालसाजी करना और धोखा देना बहुत बड़ा अन्याय है। जो कार्य सत्य के बल से हो सकता है, वह असत्य के बल से नहीं हो सकता। ऐसी मेरी आत्म-निष्ठा है ।”

बंशीधर ने कड़क शब्दों से कहा-“लक्ष्मण! तुम बहुत आदर्शवादी बन रहे हो, आदर्श के चक्कर में कहीं भ्रूखा न मरना पड़े? तुम जानते ही हो कि मुझपर रिश्वत लेने का जो मुकदमा चल रहा है, उस में तुम्हें मेरे पक्ष में गवाह बनना है, तुम्हारा झूठ मुझे बचा लेगा और मैं वापस एस.पी.के स्थान पर बहाल होते ही तुम्हें मालोमाल कर दूंगा। सिपाही से तुम्हें थानेदार बना दिया जायेगा। क्या मैं जो कह रहा हूं, उस बात को तुम गहराई से सोचोगे? तुम्हें स्वीकार है?”

लक्ष्मणसिंह की मुझवन

एस.पी. की बातें सुनकर लक्ष्मणसिंह के दिल के भाव बदल गए, मन ही मन सोचने लगा-‘वस्तुत. एस.पी. साहब ठीक कहते हैं। क्योंकि जो जितना सदाचारी है, वह उतना ही दुखी है और जो जितना दुराचारी है, वह उतना ही सुखी है। तो फिर क्यों नहीं अवसर का लाभ उठाऊँ ? घरवाली भी निरन्तर कान खाया करती है कि इतने कम वेतन से घरेलू खर्च भविष्य में कैसे चलेगा? पुत्री विद्या भी विवाह योग्य हो रही है, क्या करना चाहिए?

उसके मुख को एक-टक देखता हुआ बंशीधर बोला–“मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि तुम इतनी गहराई से क्या सोच रहे हो? तुम्हारी गवाही से मेरा पक्ष सबल हो जायगा और साथ-साथ तुम्हारी उन्नति का द्वार भी खुल जायगा।”

लक्ष्मणसिंह- “तनिक सोचकर ही जवाब दूंगा क्योंकि यह सवाल ही ऐसा है।”

बंशीधर–(कुछ गंभीर होकर) “लक्ष्मण! क्या अभी तक सोचना बाकी पड़ा है? कल की तो तारीख है। ध्यान रखना, सब बयान मेरे पक्ष में ही होना चाहिए, अन्यथा तुम जानते हो, मैं तुम्हारा अफसर हु। जैसा चाहूं वैसा कर सकता हूं।”

बंशीधर की धमकी सुनते ही वह घबड़ा गया। मन ही मन सोचा-क्या करूं? अब इधर खाई और उधर कुंआ। ईमानदारी और सच्चाई रखु तो ये साहब नाराज हो जायेंगे और यदि इनके कहे अनुसार करूं तो सच्चाई से हाथ धोना पड़ेगा।’ इसी उधेड-बुन में उसने अपने घर की राह ली। विचलित एवं व्यथित-सा होकर घर में एक तरफ जाकर बैठ गया। उसका अंतरमन उसको कहीं टिकने नहीं देता था।

उसकी पत्नी मया ने कहा-“आज ऐसे कैसे उदास होकर बैठे हैं ? लगता है आप किसी चिन्ता में हैं ?”

लक्ष्मण-“मुझे कोई मार्ग नहीं दिख रहा है।”

ऊषा-“मैं भी तो सुनु, क्या समस्या है?”

लक्ष्मणसिंह-“क्या कहूं? एस. पी. साहब जनता का कोई भी काम बिना रिश्वत के नहीं करते। किसी का छोटे से छोटा काम भी निकालना होता है, तो वे पहले अपनी जेब का मुंह खोल देते है। एक दिन वे रंगे हाथों पकड़े गये। कोर्ट में

उनका केस चल रहा है। कल तारीख है। मुझे गवाह के लिए एसपी. साहब मजबूर कर रहे है और साथ-साथ प्रलोभन भी दे रहे है कि तुझे थानेदार बना दूंगा । अब मैं सत्य साक्षी दू या असत्य ? इसी समस्या का समाधान नहीं पा रहा हूं कि मुझे क्या करना चाहिए ?”

ऊषा -“मैं अणुक्त-परिवार की सदस्या हूं। अणुव्रत जन-जन को नैतिकता का पाठ पढ़ाता है। उनका आधार आत्म-संयम है। अणुव्रत में यह नियम है कि असत्य साक्षी नहीं देना । अत: मेरी तो अपको यही सलाह है कि आप प्रलोभन के चक्र में न फंसकर सच्चाई और ईमानदारी पर अटल रहें। नैतिकता जीवन है। नैतिकता के अभाव में कोई भी अपना विकास नहीं कर सकता है।” ऊषा का यह सत्परामर्श सुन लक्ष्मणसिंह ने यह निश्चय कर लिया कि मैं असत्य साक्षी नहीं दूंगा।

दूसरे ही दिन कोर्ट के समय सभी वहां उपस्थित हुए। एस.पी. साहब ने लक्ष्मण को एक तरफ ले जाकर उसके कान में धीरे से कहा-“मेरी बात याद है ना?”

अदालत की कार्यवाही

न्यायाधीश के समक्ष केस की बहस प्रारम्भ हुई। प्रतिपक्षी वकील परस्पर अपने-अपने दांव-पेच लगाने लगे। गवाही के कटघरे में जब लक्ष्मणसिंह को खड़ा किया गया, तब एस.पी. को यह दृढ़ विश्वास था कि लक्ष्मण मेरे पक्ष में ही गवाही देगा और अवश्य ही मैं बरी हो जाऊंगा, परन्तु लक्ष्मणसिंह ने अपने बयान में वही कहा, जो सत्य था।

न्यायाधीश ने बहस समाप्त होने पर अपना निर्णय देते हए श्री गुप्ता को रिश्वत लेने के अपराध में सात साल की कड़ी कैद और चार हजार रुपये दंड के सुना दिये।

सजा सुनते ही एस. पी. साहब कर मुंह उतर गया और आंखों में अंधेरा छा गया। मन ही मन अनुताप करने लगे-“हाय ! यदि मैं भी अणुशत-परिवार का सदस्थ होता और रिश्वत को लेकर घर नहीं भरता तो आज मेरी इज्जत और प्रतिष्ठा धूलिसात् क्यों होती और क्यों ऐसी दुर्दशा का शिकार बनता? इतना पैसा, जो मने रिश्वत से बटोरा, मेरे क्या काम आया? मुझे तो अपने जीवन के अमूल्य भाग को जेल की सलाखों में रहकर सहना पड़ेगा और मेरे इस दुख में कोई साझेदार भी नहीं बनेगा।”

सच्चाई का इनाम

डी. आई. पी. श्री रामेश्वरलाल शर्मा ने लक्षमणसिंह की सच्चाई और ईमानदारी पर खुम होकर उसे पुलिस-सब-इन्सपेक्टर बना दिया।

वार्षिक पारितोषिको अवसर पर स्वयं राष्ट्रपति बारा उसकी प्रामाणिकता और सच्चाई की सराहना की गई और उसे पुलिस की विशिष्ट सेवा का पदक प्रदान किया गया।

सत्य सार संसार में, सत्य बड़ा बलवान ‘मुनि कन्हेया‘ कहेता सत्य से, मिलता अति सम्मान ।

सच्चाई की कहानी

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