आज हम आपके लिए एक शिक्षाप्रद कहानी लेकर आए हैं। जिससे हम यह जानेंगे कि मानव जीवन में नैतिक मूल्यों का क्या महत्व है? इस कहानी का शीर्षक है “रूप बसंत”,
रूप बसंत की कहानी, रूप बसतं की कथा
विशाल नगरी में महाराज चंद्रसेन की दो रानियां थी। एक रानी का नाम सुनीती था और दूसरी का कनक लता।
रानी सुनीति बहुत ही भक्तिभाव वाली थी और रानी दूसरी कनकलता बहुत ही अभिमानी और अपनी ही मनमानी करने वाली और करानेवाली। रानी सुनीति के दो बेटे थे रूपकुवर और बसंतकुवर, दोनों ही बेटे बहुत ही एकाग्रता से राज्य विद्या पढ़ते थे। दूसरी रानी कनकलता का बेटा मानकुवर बहुत ही उद्दंड और शरारती था। वह पढ़ाई पढ़ने के बजाय अपने मित्रों के साथ नगर में सब को परेशांन करना और अपना रौब जमाने निकल पड़ता था।
छोटी सी बीमारी से सुनीती रानी का देहांत हो गया। उनकी मृत्यु के पश्चात रानी कनकलता ने दांवपेच लगाकर दोनों कुवरो को देश निकाला दिलवा दिया। राज्य से बाहर निकलने के बाद बड़े भाई रूपकुवर ने छोटे भाई बसंतकुवर को समझाया कि हमें किसी से भी यह नहीं कहना है कि हम महाराजा चंद्रसेन के बच्चे राजकुमार हैं। क्योंकि ऐसा करने से हमारे पिता का अपमान होगा, बदनामी होगी।
यह दोनों भाई जहां भी काम करने जाते थे, कोमल हाथों में छाले पड़ जाते थे। क्योंकि राजकुमार थे, पर फिर भी वह सब कुछ चुपचाप सह लेते थे। वे जहां जहां काम करते वहां वहां दोनों के गुण, बोलचाल, रॉयल्टी, व्यवहार आदि सब देखकर सब यही कहते थे कि यह कोई साधारण लड़के नहीं है। यह तो जैसे कि राजकुमार लगते हैं। कार्य कराने वाले कभी कभी उनका अपमान भी करते थे। ज्यादा काम भी करवाते थे, परंतु फिर भी दोनों ही कुवर सदा अपकार्य करने वालों पर भी अच्छे व्यवहार करते थे। वे कभी किसी का कोई तकलीफ नहीं देते थे। थोड़ा सा धन भी वे गरीबो को दान भी जरूर करते थे। कभी भोजन करने बैठे और कोई मांगने वाला आ जाता था तो जिनके घर पर काम करते थे वे उनको भगाने की कोशिश करता था। लेकिन रूप बसंत खड़े होकर अपना भोजन उनको दे देते थे। आसपास रहने वालों की समस्याओं को सुनकर उन्हें कुछ ना कुछ सुझाव भी देते थे और अपनी तरफ से जो मदद वह कर सकते थे वह अवश्य करते। वे पूजा पाठ भी करते थे दोनों, जिस भी गांव में जाते थे वहां के लोग उनके पास अपनी समस्याएं स्वतः ले करके आते थे।
एक बार उन्हें लगा दोनों भाइयों को की क्यों हम छोटे-छोटे गांव में काम करते हैं? इस से अच्छा हम बड़ी नगरी में जाकर काम करें। यह सोचकर दोनों भाई नगरी की ओर चल पड़े। चलते चलते रास्ते में घना जंगल आया और रात भी हो गई थी। तो उन्होंने सोचा कि रात भर यही ठहर जाते हैं। रात की चार पहरों में से दो पहर एक भाई पहेरा देंगा। और अगले दो पहर दूसरा भाई पहरा देगा। ऐसा दोनों ने निश्चय किया।
सबसे पहले बड़े भाई रूपकुवर ने छोटे भाई को सुला दिया। दो पहर पूरा होने पर छोटे भाई को जगाने की बड़े भाई को इच्छा नहीं हुई। लेकिन तिन पहर पूरा होते होते अचानक बसंत कुवर की आँख खुल गई। आसमान में तारे देखकर उसने कहा- भैया आपने मुझे तीन पहर तक सोने दिया। अब आप आराम कर लीजिये। दिन भर चलने और तिन पहर जागरण करने से थकान के कारण रूप कुवर गहरी नींद में सो गए, और बसंत कुमार जाग रहे थे। उस समय पेड़ पर तोता मैना आपस में बात कर रहे थे कि इस पेड़ पर एक साल में एक ही फल पकता है। लेकिन यह फल ऐसा है जो इस फल को तोड़ेगा, उसे विशाला नाग डसेगा और जो उसे खाएगा वह सुबह होते ही महाराजा बन जाएगा। लेकिन महाराजा बनते ही वह अपनी पुरानी याददाश्त को भूल जाएगा। सिर्फ उसके संस्कार ही रह जाएंगे। जब उसे कोई फिर से याद दिलाएंगा तब उसे पुनः स्मृति आ जाएगी। इसलिए आज तक कोई भी लोगों ने कई लोगों ने यह प्रयास किया फल को खाने का, लेकिन फिर उन्हें विषैला नाग डस लेता था।
तोता मैना की यह बात सुनकर बसंतकुवर के मन में आया कि हम तो दोनों भाई हैं। रूपकुवर ने तो यह बात सुनी ही नहीं है। मैं ऐसा करूं कि ईस फल को तोड़कर बड़े भाई को खिला दूं ताकि वह महाराजा बन जाए। क्योंकि मेरे भाई में तो मेरे से भी ज्यादा प्रजा पालन के गुण हैं और वह प्रजा को बहुत अच्छे से सुखी भी रखेंगे। उनके मन में त्याग की भावना आई और उन्होंने ऐसा निर्णय लिया।
वे खुद भी फल खा सकते थे और खा कर महाराजा बन सकते थे। लेकिन फिर उन्होंने फल तोड़कर तुरंत ही रूप कुवर को जगाया और कहा- भैया इस पेड़ पर बहुत मीठे फल लगे थे। मैंने बहुत खाया अब एक ही फल बचा है इसे आप खा लो। ऐसा कहकर रूपकुवर को फल खिला दिया। थोड़े ही देर में एक विशाल नाग आया और बसतकुवर को डस कर एक मिनट में पलायन हो गया।
बसंतकुवर बेहोश हो गए। तब रूपकुवर उसको उठाकर पास ही बहती, बहती हुई एक नदी के किनारे पर लेकर गए और दंश दिए हुए भाग पर थोड़ा सा चीरा लगाकर पांव को बहते पानी में रखा। ताकि खून के साथ जहर भी पानी में बह जाए। थोड़ा सा उजाला होने पर उसे थोड़ी ही दूर पर एक नगर दिखाई दिया। वह किसी वैद को बूलाने के लिए उस नगर की और दौड़ पड़े।
उस नगर के राजा का कोई भी वारिश नहीं था। राजा की मृत्यु के बाद राजपुरोहित ने कहां के पूरे राज्य के लोग नगर के चौक पर इकट्ठे हो जाए और हाथीनी जिस पर जल कलश रखेगी, वहीं इस राज्य का नया राजा बनेगा। उस अनुसार पूरे ही राज्य के लोग नगर चौक पर सुबह होने से पूर्व ही पहुंच गए। दूसरी तरफ कुंवर रूप कुंवर भी वैध को ढूंढने के लिए उस राज्य में पहुंच गए थे। तो सारे घर उन्होंने खाली देखा! वह जब नगर चौक पर पहुंचा तो वैध से मिलकर उसको अपने साथ चलने की प्रार्थना कर ही रहा था। उतने में ही हाथनी घुमती घूमती उस स्थान पर आकर ठहर गई और उसने रूपकुवर के सिर पर ही जल का कलश रख दिया। कलश का जल जिससे उनके सिर पर गिरते ही रूपकुंवर पिछली याददास्त भूल गए। सिर्फ राजा ही के संस्कार इनमे रहे। जैसे कि उस फल को खाने के बाद का परिणाम था। साधारण रुपवाला रूपकुंवर जो कि मूल रूप में राजा के कुल का ही बेटा था। अब वो सचमुच राजा बन गया।
राज्य अभिषेक के बाद जब उसने राज कारोबार संभाला तो पूरे ही राज्य में सुख शांति का साम्राज्य फैल गया। वह प्रजा का बहुत ही अच्छे से ध्यान रखते थे। सारी सुख सुविधाएं भी देते थे, रात को और दिन में भी नगर चर्या करने के बाद लोगों का दुख दर्द जान लेते थे, और फिर राज दरबार में चर्चा करके उसका समाधान करते थे। उनका प्रजा के प्रति इतना वात्सल्य था कि थोड़े ही समय में वह प्रजाप्रिय राजा बन गए। उधर बसंतकुवर नदी के बहाव में बहता हुआ उसी नगर के घाट पर जा पहुंचे। तब कपड़े धोते हुए धोबी ने उन्हें बचा लिया और प्रयास करके उनको होश में लाया। ठीक होने पर बसंतकुवर ने अपने बड़े भाई रुपकुवर को ढूंढने की कोशिश की, तब उसे पता चला कि वो इसी राज्य का महाराजा है।
लेकिन उसे यह पता था कि रूपकुवर की सारी याददाश्त भूल गई होगी। और जब मैं याद दिलाउंगा तब उसे याद आएगा। इसीलिए वह युक्ति रचकर राज दरबार में पहुंच गए और वहां जाकर एक गीत सुनाया। जिसमें अपनी पूरी जीवन कहानी सुना दी। गीत सुनते सुनते महाराज कुवर रूपकुवर को अपनी पुरानी स्मृति वापस से मर्ज हो गई। और वह अपने भाई बसंतकुवर को पहचान गए। बाद में उसे अपना मंत्री बना दिया और दोनों ही भाइयों ने बड़े ही सुचारू रूप से पूरा राज्य का कार्यभार संभाल लिया।
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