vishnu tulsi ki kahani-तुलसी और विष्णु भगवान की कहानी

vishnu tulsi ki kahani: सावर्णी ऋषि मुनि की एक बहोत ही खुबसूरत पुत्री तेजमय सुंदरी थी। उनकी इच्छा थी की उनका विवाह भगवान नारायण के साथ हो जावे। इसके लिए उसने नारायण पर्वत की घाटी में उपस्थित बदरीवन में घोर तपस्या करी। तपस्या करते करते काफी समय बित जाने पर एक दिन ब्रह्माजी प्रसन्न होकर उस सुंदरी को दर्शन दिया और एक वरदान मांगने को कहा।

तुलसी और विष्णु की कहानी

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तब तुलसी ने कहा- देवधि देव ब्रह्मदेव! आप अन्तर्यामी है। आप सबके मन की बात जान सकते है, फिर भी मै अपनी एक इच्छा बताती हु की मै चाहती हु की भगवान श्री नारायण मुझे पति के रूप में मिले।“

ब्रह्माजी ने कहा- पुत्री! तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी। तुम्हारे पूर्व जन्म में किसी अपराध के कारण तुम्हे शाप मिला है। ठीक इसी प्रकार भगवान श्री नारायण के एक पार्षद को भी दानव कुल में जन्म लेने का शाप मिला है। उस पार्षद का दानव कुल में जन्म लेने के बाद भी उसमे भगवान नारायण का अंश विधमान रहेगा।

इसलिए इस जन्म में पूर्व जन्म के शाप के शमन के लिए संपूर्ण नारायण तो नहीं, नारायण के अंश से युक्त दानव कुल में जन्मे उस शापग्रस्त पार्षद से तुम्हारा विवाह अवश्य होगा। शाप मुक्त होने पर भगवान श्री नारायण सदा सर्वदा के लिए तुम्हारा पति हो जायेंगा।

तुलसी ने ब्रह्मा के इस वरदान को स्वीकार किया, क्योकि मानव कुल में जन्म लेने के कारण उसे मायावी भोग तो भोगना ही था। वर मिलने के बाद तुलसी बदरीवन में ही रहने लगी।

नारायण का वह पार्षद दानव कुल में शंखचूड़ के नाम से पैदा हुआ था। कुछ दिनों के बाद सयोगवश वह शंखचूड़ घूमता धूमता बदरीवन में आ पहोचा।

यहाँ बदरीवन में रूपवान तुलसी को देखते ही वह उस के मन को भा गई। तुलसी के सामने शंखचुड अपने साथ विवाह रचाने का प्रस्ताव रखा। इनकी ऐसी बाते चल ही रही थी वहा अचानक ब्रह्माजी प्रकट हो गए और तुलसी से कहा- तुलसी! शंखचुड को देखो कैसा रूपवान उसका स्वरुप है। दानव कुल में पैदा होने के बावजूत भी लगता है की नारायण का वास हो। तुम इनके प्रस्ताव का स्वीकार कर लों।

अब तुलसी को भी लगा की अब उसकी तपस्या पूर्ण हो गई। उसे मनोवाच्छित फल मिल गया है। अब संखचुड के साथ उनका गन्धर्व विवाह हो गया और वह अब शंखचुड के साथ उसकी पत्नी बनकर उनके महल में आ गई।

दानव शंखचुड अपनी रूपवान पत्नी सती साध्वी तुलसी संग बहोत समय तक राज किया। उन्होंने अपने राज्य का क्षेत्र इतना बढाया था की देवलोग भी उनके अहिकार क्षेत्र में आ गया था। स्वर्ग का परम सुख भोगने बाले देवताओ की दशा अब भिखारियों जैसी हो गई। शंखचुड वैसे तो किसी को कोई कष्ट नहीं देता था, पर देवताओ का अधिकार और राज्य छीन जाने पर सारे देवतागण मिलकर ब्रह्मा, विष्णु और शिव से मिलने गए और अपनी आपबीती कह सुनाई।

ब्रह्माजी ने कहा- तुलसी एक परम साध्वी है। उनका विवाह मैंने ही शंखचुड से करवाया है। शंखचुड को तबतक नहीं हराया जा सकता जब तक उनकी पत्नी को पतिव्रता ताड न दिया जाए।

विष्णु ने कहा:- शंखचुड अगले जन्म में मेरा पार्षद था। वह तो एक शाप के कारन उसे दानव कुल में जन्म लेना पड़ा। और इस उनका दानव जन्म में भी इनमे मेरा अंश विधमान है। साथ ही तुलसी के पतिव्रत धर्म से वह अजेय है।

फिर देवताओ की सहमती से भगवान शिव ने शंखचुड को सन्देश भेजवाया की या तो वह देवताओ का राज्य लौटा दे या फिर मेरे साथ युध्ध करे।

शंखचुड शंकर के पास पहोचकर भगवान शिव से कहा- देवाधिदेव! आपके लिए देवताओ की तरफदारी करना उचित नहीं है। राज्य में बढ़ोतरी करना हर राजा का कर्तव्य है। वैसे मै किसी को दुखी नहीं कर रहा हु। आप देवताओ से कहिये की वो मेरी प्रजा बनकर रहे। मैंने आपका भी कोई अपकार नहीं किया है। हमारा और आपका युध्ध शोभा नहीं देता। अगर आप मेरे हाथो हार गए तो बड़ी लज्जा की बात होगी। अगर मै हार गया तो आपकी कीर्ति बहुत ज्यादा नहीं बढ़ेगी।

भगवान शिव अपने मनोमन हंसे, क्योकि वो सब जानते थे की तुलसी और शंखचुड के शाप की सीमा ख़त्म हो चुकी थी।

भगवान शंकर बोले- इसमे कीर्ति और लज्जा की क्या बात है। तुम देवताओ का राज्य लौटाकर उन्हें उनके पद पर प्रतिष्ठित होने दो। युध्ध से बचने का यही एक रास्ता है।

शंखचुड ने कहा- मैंने युध्ध के बल पर देवलोक को जीता है। अगर कोई उसे वापस लेना चाहे तो मेरे साथ युध्ध के द्वारा ही वापस ले सकता है। ये मेरा अंतिम जवाब है। और अब मै जा रहा हु।

ऐसा बोलकर संखचुड चला गया। और अपने महल जा कर उसने अपनी पत्नी तुलसी को साडी बात बताई और कहा- भोग, कर्म, सब काल-सूत्र में बंधा हुआ है। जीवन में हर्ष, शोक, भय, सुख-दुःख, मंगल अमंगल घटनाये काल से आधीन है। हम तो केवल नाम मात्र निर्मित है। संभव है, भगवान शिव देवो का पक्ष लेकर मुझसे युध्ध करे। तुम चिंता मत करना। तुम्हारा सती तेज मेरी रक्षा करेंगा।

दुसरे ही दिन देवताओ ने भगवान शंकर के नेतृत्व में युध्ध छेड़ दिया। शंखचुड ने भी भीषण बानो से उनका वेग रोक दिया। शंखचुड के प्रहार से देवताओ डगमगाने लगे। उसने मायावी शक्ति का प्रयोग करके मायावी युध्ध आरम्भ किया। युध्ध स्थल पर वे किसी को दिखाई नहीं देता था। पर उसके अस्त्र शस्त्र प्रहार कर के देवो को घायल कर रहा था। देवगन अपने हथियार चलाये तो किस पर चलाये,क्योकि कोई शत्रु सामने दिखाई ही नहीं देता था वो शंखचुड।

वैसे ही भयंकर युध्ध काफी दिनों तक चलता रहा लेकिन शंखचुड देवताओ से पराजित नहीं हो रहा था। इस वजह से भगवान शिव ने विष्णु को कोई अलग उपाय करने के लिए कहा नहीतर मेरा सारा यश मिटटी में मिल जाएगा।

विष्णु भगवान ने सोचा- बल से शंखचुड को हराया नहीं जा सकता, इसलिए हमें छल का सहारा लेना होंगा। उन्होंने तुरंत अपना स्वरूप शंखचुड जैसा बनाया और अस्त्र शस्त्र से सज्जित होकर तुलसी के पास गए। और बोले- प्रिये! मैंने युद्ध जित लिया। सारे देवता शंकर समेत हार गए। चलो युध्ध जितने की ख़ुशी में मै तुम्हे अंक से लगा लू।

तुलसी ने अपने पति को खड़ा देखते ही और जित का समाचार सुनते ही वह दौड़कर मायावी शंखचुड के गले से लिपट गई। इस तरह से पति पत्नी दोनों ने आलिंगन होकर खूब ख़ुशी मनाई। पर पुरुष के साथ इस प्रकार के व्यवहार से उनका सती तेज नष्ट हो गया। उसका ही सती तेज जो शंखचुड को कवच के रूप में रक्षा कर रहा था। वह कवच नष्ट हो गया। अब शंखचुड शक्तिहीन हो गया। यह जानते ही भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल से संखचुड पर प्रहार किया। त्रिशूल के लगने से ही शंखचुड जलकर भस्म हो गया।

शंखचुड के मरजाने की जानकारी पाकर भगवान विष्णु अपने असली स्वरुप में आ गए। सामने अपने पति शंखचुड के बदले भगवान विष्णु को देखकर तुलसी बहोत विस्मित हुई। उन्हें अब पता चल गया था की स्वयं भगवान नारायण ने उनके साथ छल कपट किया है।

क्रोध में आकर तुलसी ने भगवान विष्णु को शाप दे दिया- की एक सती स्त्री का सतीत्व भंग करने के अपराध में तुम रदयहिन् पत्थर हो जाओगे।

भगवान विष्णु ने तुलसी के शाप को स्वीकार कर कहा- देवी! तुम्हारे और शंखचुड के कल्याण के हेतु मुझे ऐसा करना पड़ा। क्योकि मुझे तुम दोनों को शाप से मुक्त जो करना था। तुम भी अब शरीर त्याग कर तुलसी बिरवा के रूप में जन्म लोंगी और मेरी पूजा तुलसी डाल से होंगी। मै शालग्राम पत्थर बनूँगा। मेरे शीश पर तुम आदर से विराजमान होओगी। और तुम्हारे पाती की हड्डियों के चूर्ण से शंख की उत्पत्ति होंगी। उसी शंख ध्वनी से देवताओ तथा मेरी पूजा आराधना होंगी।

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तुलसी और विष्णु की कहानीजहा पे भी शंख ध्वनी होंगी, वहा मंगलमय मै बिराजमान रहूँगा। तुम बदरीवन में मुझे पाने के लिए बड़ी तपस्या की थी। अब अगले जन्म में मै नारायण प्रस्तर के रूप में बद्रीनाथ वन में स्थापित होऊंगा और मेरी पूजा अर्चना फल-फूल से नहोकर तुम्हारे तुलसी दल से होंगी। मेरे शीश पर विराजमान होकर तुम मुझसे भी ऊँचा पद प्राप्त करोंगी।

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